आजकल कृत्रिम हीरे का खास प्रचलन है, बाजार में अच्छी-खासी मात्रा में यह बिक भी रहा है। यह प्रचलन नया हो, ऐसा नहीं है। प्राचीन काल से ही नकली हीरे बनाने का प्रचलन रहा है। गरुण पुराण में भी स्पष्ट है कि हीरे का मूल्य एवं से सम्मान देखकर कुछ चालाक लोग नकली हीरे के निमार्ण में लग गए हैं। ऐसे लोग लोहा, पुखराज, गोमेद, वैदूर्य, स्फटिक और कांच से कृत्रिम हीरे बना लेते हैं। इसलिए लोगों को इसकी परीक्षा ठीक ढंग से करनी चाहिए।
कृत्रिम हीरा चार तरह का होता है: संश्लिष्ट, पुनर्निर्मित, अनुकृत और श्रिलक। व्यावसायिक दृष्टि से लाभदायक संश्लिष्ट हीरा अभी तक नहीं बनाया जा सका है, हालांकि वैज्ञानिक इस ओर प्रयत्नशील है। रत्नीय हीरे के रूप में इनका कोई उपयोग नहीं है। जो व्यक्ति नहीं खरीद सकते, उन्हें हीरे का उपरत्न पहनना चाहिए।
इनकी कीमत हीरे की अपेक्षा कम होती है। इसलिए ये कम प्रभावशाली होते हैं। हीरे के उपरत्न हैं सिम्मा, कुरंगी, दतला, कंसला और तंकू हीरा। जो व्यक्ति हीरा या उसके उपरत्न न खरीद सकें, उन्हें तीन रत्ती से अधिक वजन का सफेद पुखराज, जिरकॉन या सफेद तुरमली पहनना चाहिए। जो व्यक्ति इन्हें भी नहीं खरीद सकते, वे सफेद स्फटिक (बिल्लौर), कम से कम पांच रत्ती का चांदी की अंगूठी में धारण करें।
हीरा विष नाशक रत्न है, जो व्यक्ति जंगल में घूमते फिरते हों या जिनका विषधरों से अक्सर पाला पड़ता हो। उन्हें हीरा अवश्य पहनना चाहिए। ऐसा भी माना जाता है कि इससे निर्बलता भी दूर होती है। यदि घर में पति-पत्नी के बीच कलह होती हो तो भी हीरा पहनना चाहिए।