नई दिल्ली। हिंदी आलोचना के शिखरपुरुष एवं प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक नामवर सिंह करीब छह दशक तक साहित्य की दुनिया में छाये रहे और उन्होंने एक प्रखर विद्वान के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनायी थी। 28 जुलाई 1926 को उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के गांव जीयनपुर में जन्मे डॉ सिंह यशस्वी लेखक पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रिय शिष्यों में से एक थे और वह आलोचना की मौखिक परंपरा के आचार्य माने जाते थे।
हिंदी साहित्य के संक्राति काल में अपनी प्रखर द्वंद्वात्मक विवेचन शैली के जरिये यथार्थवादी आलोचना को नयी धारा देने वाले डॉ सिंह ने मार्क्सवादी आलोचना को व्यापक और व्यवस्थित आधार देने में बड़ी भूमिका निभायी। जब कविता, कहानी और साहित्य के प्रतिमानों को लेकर जोरदार बहस छिड़ी थी तो उस वक्त वैचारिक ताजगी और अपनी विहंगम शैली के जरिये उन्होंने हिंदी साहित्य में आलोचना के नये प्रतिमान स्थापित किये। जनपक्षधरता, समावेशी और तथ्यपरकता से युक्त उनकी बहुआयामी आलोचना मौजूदा दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक मानी जाती है। हिन्दी साहित्य में एमए और पीएचडी करने के बाद उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन आरंभ किया। वर्ष 1941 में उन्होंने लेखक जीवन की शुरुआत की। उनकी पहली कविता इसी साल 'क्षत्रियमित्र’ पत्रिका (बनारस) में प्रकाशित हुई। वर्ष 1949 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्रातक और 1951 में वहीं से हिन्दी में स्रातकोत्तर करने के बाद वर्ष 1953 में उसी विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में अस्थायी पद पर नियुक्त हुए। वर्ष 1956 में उन्होंने ‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’ शोध पत्र पर पीएचडी की ।
इसी साल वह चकिया चन्दौली के लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में खड़े हुए लेकिन वह चुनाव हार गये। वर्ष 1959-60 में मध्य प्रदेश के सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर का पदभार संभाला। इसके बसद वह वर्ष 1960 से 1965 तक बनारस में रहकर स्वतन्त्र लेखन करने लगे। इसी दौरान वर्ष 1965 में 'जनयुग’ साप्ताहिक के सम्पादक के रूप में वह दिल्ली आये और साथ ही दो साल तक राजकमल प्रकाशन (दिल्ली) के साहित्यिक सलाहकार भी रहे। वर्ष 1967 में उन्होंने 'आलोचना’ त्रैमासिक का सम्पादन शुरू किया। वह दैनिक पत्र राष्ट्रीय सहारा और जनयुग से भी जुड़े रहे। इसके बाद वह एक बार फिर अध्यापन के पेशे में लौटे आये। वह वर्ष 1970 में राजस्थान में जोधपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रोफेसर नियुक्त किये गये। इसके अगले ही साल उन्हें 'कविता के नए प्रतिमान’ पर साहित्य अकादेमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ।
वह साहित्य अकादमी के फेलो भी रहे और उन्हें हिंदी अकादमी का श्लाका सम्मान भी मिला। वह वर्ष 1974 में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनकर आये। वह जेएनयू के भारतीय भाषा केन्द्र के संस्थापक अध्यक्ष रहे। डॉ नामवर सिंह वर्ष 1987 में जेएनयू सेवानिवृत्त तो हुए लेकिन उन्हें अगले पाँच वर्षों के लिए पुनर्नियुक्ति मिली। वह वर्ष 1993 से 1996 तक राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के अध्यक्ष और वर्धा के महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति भी रहे।