नई दिल्ली। यदि आप वकालत या अध्यापन की बात करें तो समझा जा सकता है कि एक अंधा आदमी भी सफलतापूर्वक अपना करियर बना सकता है। जहां तक एमबीबीएस का मामला है, हमें देखना होगा कि ये कैसे व्यवहारिक और संभव होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणी एक मंद दृष्टि छात्र आशुतोष पर्सवानी की याचिका पर सुनवाई करते हुए की, जिसने मेडिकल पाठ्यक्रमों में पढ़ने की योग्यता परीक्षा नीट-2018 उत्तीर्ण कर लेने के बाद अपने लिए कानून के अनुसार दिव्यांगता प्रमाणपत्र जारी किए जाने की मांग की थी।
जस्टिस यूयू ललित और दीपक गुप्ता की अवकाशकालीन पीठ ने अपने सामने पेश याचिका की सुनवाई के बाद केंद्र और गुजरात सरकार को नोटिस जारी किए। छात्र को तीन दिन में अहमदाबाद के बीजे मेडिकल कॉलेज की कमेटी के सामने पेश होने को कहा गया है, जो चार दिन के अंदर छात्र की मेडिकल रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री को देगी। वही फैसला होगा।
दिल्ली के मेडिकल कॉलेज ने नहीं दिया था प्रमाणपत्र
आशुतोष शारीरिक विकलांग वर्ग के तहत नीट एग्जाम-2018 में शामिल हुआ था, जहां उसकी अखिल भारतीय रैंक 4,68,982 रही थी, लेकिन शारीरिक विकलांग वर्ग में उसकी रैंक पूरे देश में 419वीं थीं। छात्र का आरोप है कि 30 मई को वह परीक्षा के नियमों के तहत दिल्ली के वर्द्धमान महावीर मेडिकल कॉलेज में दिव्यांग प्रमाणपत्र लेने पहुंचा, लेकिन वहां उसका परीक्षण नहीं किया गया।
पिछले साल छूट दे चुका है शीर्ष न्यायालय
24 सितंबर, 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में दो वर्णांध (कलर ब्लाइंड) छात्रों को एमबीबीएस में प्रवेश दिए जाने के आदेश दिए थे। त्रिपुरा के ये दोनों छात्र 2015 में प्रवेश परीक्षा में सबसे ज्यादा अंक पाने वालों में से एक थे। लेकिन बिना किसी संवैधानिक प्रावधान के मेडिकल काउंसिल आॅफ इंडिया ने पूरे देश में वर्णांध छात्रों के एमबीबीएस में प्रवेश लेने पर रोक लगा रखी थी।