नई दिल्ली। देश में आम चुनाव आते ही संसद तथा विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की बात जोर शोर से उठने लगती है और प्रमुख राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र में इसे जगह भी मिल जाती है लेकिन जब इसे अमली जामा पहनाने की बात आती है तो राजनीतिक दल एक दूसरे पर जिम्मेदारी थोपने लगते हैं जिसके कारण यह मामला 23 साल से लटका हुआ है। महिला दिवस यानी आठ मार्च पर हर साल इसको लेकर जोर शोर से चर्चा होती है।
राजनीतिक दलों में हलचल बढ जाती है और उनकी महिला शाखा की कार्यकर्ता सड़कों पर उतरती हैं और दूसरे दलों पर इसको लेकर नकारात्मक सोच होने का आरोप लगाती हैं। हर बार यही होता है और सभी दल कमोबेश इसी तरह की राजनीति महिला आरक्षण को लेकर करते हैं। पार्टी नेतृत्व सरकार को पत्र लिखकर इससे संबंधित विधेयक को संसद में लाने की मांग करते हैं और यह सिलसिला दो दशक से ज्यादा समय से लगातार चल रहा है।
लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण के प्रावधान वाला विधेयक पहली बार 1996 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मंत्री एच डी देवगौड़ा की सरकार ने लोकसभा में पेश किया था। उसके बाद यह 1998, 1999 तथा 2002 में भी पेश किया गया। महिला आरक्षण से संबंधित विधेयक 2010 में राज्यसभा में पारित हो गया लेकिन लोकसभा में यह हर बार लटकता ही रहा।
वर्ष 2010 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने इसे राज्यसभा में पारित करा दिया लेकिन लोकसभा में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसे क्षेत्रीय दलों के विरोध के कारण इसे पारित नहीं कराया जा सका। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को 2014 में लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिला था और यह उम्मीद बंधी थी कि महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का सपना साकार हो जायेगा लेकिन 16वीं लोकसभा में विधेयक को पारित करना तो दूर इसे चर्चा के लिए भी नहीं लाया गया।
यद्यपि यह मुद्दा 2014 के भाजपा के घोषणा पत्र में शामिल था। लम्बे समय से इस विधेयक के पारित होने का इंतजार कर रही महिलाओं की नजर अब अगली लोकसभा पर होगी जिसका चुनाव अप्रैल मई में होने हैं। महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुष्मिता देव का कहना है कि भाजपा ने महिला आरक्षण को लेकर देश की महिलाओं को धोखा दिया है। यह विधेयक 2010 में राज्यसभा से पारित है लेकिन तब कांग्रेस के पास बहुमत नहीं था इसलिए विधेयक पारित कराया नहीं जा सका।
भाजपा के पास इस बार लोकसभा में बहुमत था और इस विधेयक को आसानी से पारित कराया जा सकता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। यह पूछने पर कि क्या महिला आरक्षण विधेयक अगले लोकसभा चुनाव में सभी दलों का मुख्य एजेंडा होना चाहिए, उन्होंने कहा कि भाजपा के घोषणा पत्र में पिछली बार भी यह था लेकिन उसके बावजूद इसे संसद में नहीं लाया गया।